कठोपनिषद एक रथ के दृष्टान्त द्वारा मानव व्यक्तित्व का वर्णन करता है । हमारा "मैं" रथ का स्वामी है, शरीर ही रथ है और बुद्धि सारथी है । मनस लगाम है, जिससे कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा घ्राणरूपी ज्ञानेन्द्रियाँ जुड़ी हुई हैं । ये ज्ञानेन्द्रियाँ व्यक्ति को संसार का ज्ञान देनेवाली मानो पाँच खिड़कियाँ हैं । भोग्य विषयों रुपी सड़क पर यह रथ चलता है । जो व्यक्ति इस देह-मन के साथ तादात्म्य का बोध करता है, उसे विषयों या कर्मफलों का भोक्ता कहा जाता है ।
यदी घोड़े भलीभाँती प्रशिक्षित नहीं हैं और यदी सारथी सोया हुआ है, तो रथ अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता । बल्कि यह दुर्घटनाग्रस्त होकर अपने मालिक की मृत्यु का कारण भी बन सकता है । इसी प्रकार यदि इन्द्रियाँ नियंत्रण में नहीं लायी गयीं और यदी विवेक की शक्ति सोयी रह गयी, तो व्यक्ति मानव जीवन के लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता ।
दूसरी ओर, यदी घोड़े प्रशिक्षित हैं और सारथी सजग है, तो रथ अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है । उसी प्रकार यदी बुद्धि जाग्रत है और मन तथा इन्द्रियाँ अनुशासित एवं सयंमित हैं, तो व्यक्ति जीवन के लक्ष्य तक पहुँच सकता है । वह लक्ष्य क्या है ? हम शीघ्र ही उस विषय पर आयेंगे ।
व्यक्तित्व विकास से जुड़ी मन की एक अन्य महत्वपूर्ण क्रिया है हमारी भावनाएं । ये भावनाएं जितनी ही सयंमित होंगी, व्यक्ति का व्यक्तित्व भी उतना ही स्वस्थ होगा । इन भावनाओं या मनोवेगों को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है - राग और द्वेष ।
प्रेम, प्रशंसा, महत्वाकांक्षा, सहानुभूति, सुख, सम्मान, गर्व तथा इसी प्रकार के अन्य भावों को राग कहा जाता है ।और घृणा, क्रोध, भय, खेद, इर्ष्या, जुगुप्सा तथा लज्जा आदि द्वेष के अंतर्गत आते हैं । जब तक व्यक्ति असंयमित मन के साथ जुड़ा है, तब तक उसके व्यक्तित्व का वास्तविक विकास नहीं होता । बुद्धिरूपी सारथी मनोवेगों को नियंत्रित करके और उच्चतर मन को निम्नतर मन चंगुल से ऊपर उठाकर आत्म-विकास के एक प्रभावी यन्त्र के रूप में कार्य करता है ।