Wednesday, 9 October 2013

भूमिका - चरित्र क्या है

हमारी प्रत्येक क्रिया तथा विचार हमारे मन पर एक छाप छोड़ जाता है । ये संस्कार ही यह निर्धारित करते हैं की हम एक विशेष क्षण में, किसी विशेष परिस्थिति में कैसा आचरण करेंगे ।








हमारे इन समस्त संस्कारों का योग हमारे चरित्र का निर्धारण करता है । भूतकाल ने वर्तमान का निर्धारण किया । उसी प्रकार वर्तमान - हमारे वर्तमान विचार तथा क्रियाएँ - हमारा भविष्य निर्धारित करेंगी । यही व्यक्तित्व विकास को नियंत्रित करने वाला मूलभूत सिद्धांत है ।

Monday, 7 October 2013

भूमिका - मन के विषय में और भी

कठोपनिषद एक रथ के दृष्टान्त द्वारा मानव व्यक्तित्व का वर्णन करता है । हमारा "मैं" रथ का स्वामी है, शरीर ही रथ है और बुद्धि सारथी है । मनस लगाम है, जिससे कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा घ्राणरूपी ज्ञानेन्द्रियाँ जुड़ी हुई हैं । ये ज्ञानेन्द्रियाँ व्यक्ति को संसार का ज्ञान देनेवाली मानो पाँच खिड़कियाँ हैं । भोग्य विषयों रुपी सड़क पर यह रथ चलता है । जो व्यक्ति इस देह-मन के साथ तादात्म्य का बोध करता है, उसे विषयों या कर्मफलों का भोक्ता कहा जाता है ।








यदी घोड़े भलीभाँती प्रशिक्षित नहीं हैं और यदी सारथी सोया हुआ है, तो रथ अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता । बल्कि यह दुर्घटनाग्रस्त होकर अपने मालिक की मृत्यु का कारण भी बन सकता है । इसी प्रकार यदि इन्द्रियाँ नियंत्रण में नहीं लायी गयीं और यदी विवेक की शक्ति सोयी रह गयी, तो व्यक्ति मानव जीवन के लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता ।

दूसरी ओर, यदी घोड़े प्रशिक्षित हैं और सारथी सजग है, तो रथ अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है । उसी प्रकार यदी बुद्धि जाग्रत है और मन तथा इन्द्रियाँ अनुशासित एवं सयंमित हैं, तो व्यक्ति जीवन के लक्ष्य तक पहुँच सकता है । वह लक्ष्य क्या है ? हम शीघ्र ही उस विषय पर आयेंगे ।


व्यक्तित्व विकास से जुड़ी मन की एक अन्य महत्वपूर्ण क्रिया है हमारी भावनाएं । ये भावनाएं जितनी ही सयंमित होंगी, व्यक्ति का व्यक्तित्व भी उतना ही स्वस्थ होगा । इन भावनाओं या मनोवेगों को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है - राग और द्वेष
प्रेम, प्रशंसा, महत्वाकांक्षा, सहानुभूति, सुख, सम्मान, गर्व तथा इसी प्रकार के अन्य भावों को राग कहा जाता है ।और घृणा, क्रोध, भय, खेद, इर्ष्या, जुगुप्सा तथा लज्जा आदि द्वेष के अंतर्गत आते हैं । जब तक व्यक्ति असंयमित मन के साथ जुड़ा है, तब तक उसके व्यक्तित्व का वास्तविक विकास नहीं होता । बुद्धिरूपी सारथी मनोवेगों को नियंत्रित करके और उच्चतर मन को निम्नतर मन चंगुल से ऊपर उठाकर आत्म-विकास के एक प्रभावी यन्त्र के रूप में कार्य करता है ।

Saturday, 5 October 2013

भूमिका - मन की चार तरह की क्रियाएँ

मानव मन की चार मूलभूत क्रियाएँ हैं । इसे एक उदहारण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है । मान लो मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिलता हूँ, जिनसे मैं लगभग दस वर्ष पहले मिल चुका हूँ । मैं याद करने का प्रयास करता हूँ की मैं उससे कब मिला हूँ और वह कौन है ! यह देखने के लिए मेरे मन के अन्दर मानो जांच - पड़ताल शुरू हो जाती है कि वहाँ उस व्यक्ति से जुड़ी हुई कोई घटना तो अंकित नहीं है । सहसा मैं उस व्यक्ति को अमुक के रूप में पहचान लेता हूँ और कहता हूँ, "यह वही व्यक्ति है, जिससे मैं अमुक स्थान पर मिला था" इत्यादि ! अब मुझे उस व्यक्ति के बारे में पक्का ज्ञान हो चुका है ।



उपरोक्त उदाहरण का विश्लेषण कर के हम मन की चार क्रियाओ का विभाजन कर सकते हैं -

स्मृति स्मृतियों का संचय तथा हमारे पूर्व-अनुभूतियों के संस्कार हमारे मन के समक्ष विभिन्न संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं । यह संचय चित्त कहलाता है । इसी में हमारे भले-बुरे सभी प्रकार के विचारों तथा क्रियाओं का संचयन होता है । इन संस्कारों का कुल योग ही चरित्र का निर्धारण करता है । यह चित्त ही अवचेतन मन भी कहलाता है ।

सोचने की क्रिया तथा कल्पना शक्ति कुछ निश्चित न कर पाकर मन अपने सामने उपस्थित अनेक विकल्पों का परीक्षण करता है । यह कई चीजों पर विचार करता है । मन की क्रिया मनस कहलाती है । कल्पना तथा धारणाओं का निर्माण भी मनस की ही क्रिया है । 

निश्चय करना तथा निर्णय लेना
बुद्धि ही वह शक्ति है, जो निर्णय लेने में उत्तरदायी है । इसमें सभी चीजों के भले तथा बुरे पक्षों पर विचार करके वांछनीय क्या है, यह जानने की क्षमता होती है । यह मनुष्य में निहित विवेक की शक्ति भी है; जो उसे भला क्या है तथा बुरा क्या है, करणीय क्या है तथा अकरणीय क्या है और नैतिक रूप से उचित क्या है तथा अनुचित क्या है, इसका विचार करने की क्षमता प्रदान करती है । यह इच्छाशक्ति का भी स्थान है, जो व्यक्तित्व विकास के लिए परम आवश्यक है, अतः मन का यह पक्ष हमारे लिए सर्वाधिक महत्व का है ।


'अहं' का बोध
सभी शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं को स्वयं में आरोपित करके - मैं खाता हूँ, मैं देखता हूँ, मैं बोलता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सोचता हूँ, मैं द्विधाग्रस्त होता हूँ, इत्यादी - इसी को अहंकार या 'मैं' - बोध कहते हैं । जब तक यह 'मैं' स्वयं को असंयमित देह-मन से जोड़ लेता है, तब तक मानव-जीवन इस संसार की घटनाओं तथा परिस्थितियों से परिचालित होता है । (इसके फलस्वरूप) हम प्रिय घटनाओं से सुखी होते हैं और अप्रिय घटनाओं से दुखी होते हैं । मन जितना ही शुद्ध तथा संयमित होता जाता है, उतना ही हमें इस "मैं" - बोध के मूल स्त्रोत का पता चलता जाता है । और उसी के अनुसार मनुष्य अपने दैनन्दिन जीवन में संतुलित तथा साम्यावस्था को प्राप्त होता जाता है । ऐसा व्यक्ति फिर घटनाओं तथा परिस्थितियों द्वारा विचलित नहीं होता ।

मनस, बुद्धि, चित्त और अहंकार - मन के ये चार बिल्कुल अलग अलग विभाग नहीं हैं । एक ही मन को उसकी क्रियाओं के अनुसार ये भिन्न भिन्न नाम दिए गए हैं ।

Thursday, 3 October 2013

भूमिका - अपने मन को समझने की आवश्यकता

हम बहुत सी चीज़े करने के इच्छुक हैं - अच्छी आदतें डालने और बुरी आदतें छोड़ने, एकाग्रता के साथ पढ़ने और मन लगाकर कुछ करने का हम संकल्प लेते हैं । परन्तु बहुधा हमारा मन विद्रोह कर बैठता है और हमे इन संकल्पों को रूपायित करने के हमारे प्रयास से पीछे हटने को मजबूर कर देता है ।
हमारे सामने किताब खुली पड़ी है और हमारी आँखें खुली हैं; परन्तु मन कुछ पुरानी बातों को सोचता हुआ या भविष्य के लिए ख्याली पुलाव पकाता हुआ इधर - उधर घूमने लगता है । जब हम थोड़ी देर की लिए प्रार्थना, जप या ध्यान करने बैठते हैं, तब भी ऐसा ही होता है ।



स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं, "स्वतंत्र ! हम एक क्षण तो स्वयं अपने मन पर शासन नहीं कर सकते; यही नहीं, किसी विषय पर उसे स्थिर नहीं कर सकते और अन्य सबसे हटाकर किसी एक बिंदु पर उसे केन्द्रित नहीं कर सकते ! फिर भी हम अपने को स्वतन्त्र कहते हैं ! ज़रा इस पर तो गौर करो !"

भगवद्गीता का कहना है की असंयमित मन एक शत्रु के सामान और संयमित मन हमारे मित्र के सामान आचरण करता है । अतः हमें अपने मन की प्रक्रिया के विषय में एक स्पष्ट धारणा रखने की आवश्यकता है । क्या हम इसे अपने आज्ञा - पालन में, अपने साथ सहयोग करने में प्रशिक्षित कर सकते हैं !? किस प्रकार यह हमारे व्यक्तित्व के विकास में योगदान कर सकता है !?

Tuesday, 1 October 2013

भूमिका - व्यक्तित्व क्या है

अंग्रेजी के कैंब्रिज अन्तराष्ट्रीय शब्दकोश के अनुसार 'आप जिस प्रकार के व्यक्ति हैं, वही आपका व्यक्तित्व है और वह आपके आचरण, संवेदनशीलता तथा विचारो से व्यक्त होता है ।' लोंग्मन के शब्दकोष के अनुसार 'किसी व्यक्ति का पूरा स्वभाव तथा चरित्र' ही व्यक्तित्व कहलाता है ।

कोई व्यक्ति कैसा आचरण करता है, महसूस करता है और सोचता है; किसी विशेष परिस्थिति में कैसा व्यवहार करता है - यह काफी कुछ उसकी मानसिक संरचना पर निर्भर करता है ।
किसी व्यक्ति की केवल बाह्य आकृति या उसकी बातें या चाल-ढाल उसके व्यक्तित्व के केवल छोर भर हैं । ये उसके सच्चे व्यक्तित्व को प्रकट नहीं करते ।

व्यक्तित्व का विकास वस्तुतः व्यक्ति के गहन स्तरों से सम्बंधित है । अतः मन तथा उसकी क्रियाविधि के बारे में स्पष्ट समझ से ही हमारे व्यक्तित्व का अध्ययन प्रारंभ होना चाहिए ।

Sunday, 29 September 2013

प्रस्तावना

'व्यक्तित्व का विकास' यह ब्लॉग पाठको को समर्पित करते हुए हमे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है ।

वास्तविक व्यक्तित्व किसे कहते हैं, इस विषय में हम लोग काफी अनभिज्ञ हैं | हम यह नहीं जानते की व्यक्तित्व के विकास का सम्बन्ध हमारी मूल चेतना अथवा हमारे अहम् से है । अतः देखने में यह आता है के व्यक्तित्व के विकास के नाम पर केवल बाहरी, दिखावटी रूप पर ही बल दिया जाता है ।
इस ब्लॉग में हम इसी विषय पर स्वामी विवेकानंद जी के उपयुक्त विचार प्रस्तुत कर रहे हैं ।

आशा है के यह संकलन हमारे पाठको के लिए विशेष लाभदायी सिध्ध होगा !!!