मानव मन की चार मूलभूत क्रियाएँ हैं । इसे एक उदहारण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है । मान लो मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिलता हूँ, जिनसे मैं लगभग दस वर्ष पहले मिल चुका हूँ । मैं याद करने का प्रयास करता हूँ की मैं उससे कब मिला हूँ और वह कौन है ! यह देखने के लिए मेरे मन के अन्दर मानो जांच - पड़ताल शुरू हो जाती है कि वहाँ उस व्यक्ति से जुड़ी हुई कोई घटना तो अंकित नहीं है । सहसा मैं उस व्यक्ति को अमुक के रूप में पहचान लेता हूँ और कहता हूँ, "यह वही व्यक्ति है, जिससे मैं अमुक स्थान पर मिला था" इत्यादि ! अब मुझे उस व्यक्ति के बारे में पक्का ज्ञान हो चुका है ।
उपरोक्त उदाहरण का विश्लेषण कर के हम मन की चार क्रियाओ का विभाजन कर सकते हैं -
स्मृति स्मृतियों का संचय तथा हमारे पूर्व-अनुभूतियों के संस्कार हमारे मन के समक्ष विभिन्न संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं । यह संचय चित्त कहलाता है । इसी में हमारे भले-बुरे सभी प्रकार के विचारों तथा क्रियाओं का संचयन होता है । इन संस्कारों का कुल योग ही चरित्र का निर्धारण करता है । यह चित्त ही अवचेतन मन भी कहलाता है ।
सोचने की क्रिया तथा कल्पना शक्ति कुछ निश्चित न कर पाकर मन अपने सामने उपस्थित अनेक विकल्पों का परीक्षण करता है । यह कई चीजों पर विचार करता है । मन की क्रिया मनस कहलाती है । कल्पना तथा धारणाओं का निर्माण भी मनस की ही क्रिया है ।
निश्चय करना तथा निर्णय लेना
बुद्धि ही वह शक्ति है, जो निर्णय लेने में उत्तरदायी है । इसमें सभी चीजों के भले तथा बुरे पक्षों पर विचार करके वांछनीय क्या है, यह जानने की क्षमता होती है । यह मनुष्य में निहित विवेक की शक्ति भी है; जो उसे भला क्या है तथा बुरा क्या है, करणीय क्या है तथा अकरणीय क्या है और नैतिक रूप से उचित क्या है तथा अनुचित क्या है, इसका विचार करने की क्षमता प्रदान करती है । यह इच्छाशक्ति का भी स्थान है, जो व्यक्तित्व विकास के लिए परम आवश्यक है, अतः मन का यह पक्ष हमारे लिए सर्वाधिक महत्व का है ।
'अहं' का बोध
सभी शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं को स्वयं में आरोपित करके - मैं खाता हूँ, मैं देखता हूँ, मैं बोलता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सोचता हूँ, मैं द्विधाग्रस्त होता हूँ, इत्यादी - इसी को अहंकार या 'मैं' - बोध कहते हैं । जब तक यह 'मैं' स्वयं को असंयमित देह-मन से जोड़ लेता है, तब तक मानव-जीवन इस संसार की घटनाओं तथा परिस्थितियों से परिचालित होता है । (इसके फलस्वरूप) हम प्रिय घटनाओं से सुखी होते हैं और अप्रिय घटनाओं से दुखी होते हैं । मन जितना ही शुद्ध तथा संयमित होता जाता है, उतना ही हमें इस "मैं" - बोध के मूल स्त्रोत का पता चलता जाता है । और उसी के अनुसार मनुष्य अपने दैनन्दिन जीवन में संतुलित तथा साम्यावस्था को प्राप्त होता जाता है । ऐसा व्यक्ति फिर घटनाओं तथा परिस्थितियों द्वारा विचलित नहीं होता ।
मनस, बुद्धि, चित्त और अहंकार - मन के ये चार बिल्कुल अलग अलग विभाग नहीं हैं । एक ही मन को उसकी क्रियाओं के अनुसार ये भिन्न भिन्न नाम दिए गए हैं ।
उपरोक्त उदाहरण का विश्लेषण कर के हम मन की चार क्रियाओ का विभाजन कर सकते हैं -
स्मृति स्मृतियों का संचय तथा हमारे पूर्व-अनुभूतियों के संस्कार हमारे मन के समक्ष विभिन्न संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं । यह संचय चित्त कहलाता है । इसी में हमारे भले-बुरे सभी प्रकार के विचारों तथा क्रियाओं का संचयन होता है । इन संस्कारों का कुल योग ही चरित्र का निर्धारण करता है । यह चित्त ही अवचेतन मन भी कहलाता है ।
सोचने की क्रिया तथा कल्पना शक्ति कुछ निश्चित न कर पाकर मन अपने सामने उपस्थित अनेक विकल्पों का परीक्षण करता है । यह कई चीजों पर विचार करता है । मन की क्रिया मनस कहलाती है । कल्पना तथा धारणाओं का निर्माण भी मनस की ही क्रिया है ।
निश्चय करना तथा निर्णय लेना
बुद्धि ही वह शक्ति है, जो निर्णय लेने में उत्तरदायी है । इसमें सभी चीजों के भले तथा बुरे पक्षों पर विचार करके वांछनीय क्या है, यह जानने की क्षमता होती है । यह मनुष्य में निहित विवेक की शक्ति भी है; जो उसे भला क्या है तथा बुरा क्या है, करणीय क्या है तथा अकरणीय क्या है और नैतिक रूप से उचित क्या है तथा अनुचित क्या है, इसका विचार करने की क्षमता प्रदान करती है । यह इच्छाशक्ति का भी स्थान है, जो व्यक्तित्व विकास के लिए परम आवश्यक है, अतः मन का यह पक्ष हमारे लिए सर्वाधिक महत्व का है ।
'अहं' का बोध
सभी शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं को स्वयं में आरोपित करके - मैं खाता हूँ, मैं देखता हूँ, मैं बोलता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सोचता हूँ, मैं द्विधाग्रस्त होता हूँ, इत्यादी - इसी को अहंकार या 'मैं' - बोध कहते हैं । जब तक यह 'मैं' स्वयं को असंयमित देह-मन से जोड़ लेता है, तब तक मानव-जीवन इस संसार की घटनाओं तथा परिस्थितियों से परिचालित होता है । (इसके फलस्वरूप) हम प्रिय घटनाओं से सुखी होते हैं और अप्रिय घटनाओं से दुखी होते हैं । मन जितना ही शुद्ध तथा संयमित होता जाता है, उतना ही हमें इस "मैं" - बोध के मूल स्त्रोत का पता चलता जाता है । और उसी के अनुसार मनुष्य अपने दैनन्दिन जीवन में संतुलित तथा साम्यावस्था को प्राप्त होता जाता है । ऐसा व्यक्ति फिर घटनाओं तथा परिस्थितियों द्वारा विचलित नहीं होता ।
मनस, बुद्धि, चित्त और अहंकार - मन के ये चार बिल्कुल अलग अलग विभाग नहीं हैं । एक ही मन को उसकी क्रियाओं के अनुसार ये भिन्न भिन्न नाम दिए गए हैं ।

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